Thartharahat

Thartharahat

Hardback (25 Jul 2017) | Hindi

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Publisher's Synopsis

कविता वह समय है जिसे इतिहास देख भले ले पर दुहरा नहीं सकता.. ये कुछ शब्द नए कवि आस्तीक वाजपेयी की कविता के हैं जो तुमुल कोलाहल-कलह के बीच कवि की आवाज़ में बचे रह गए उस समय की याद दिलाते हंै जिसमें पुराण और पुरखों की स्मृति बसी हुई है। इस कविता को पढ़ते हुए उस अग्रज समय का अहसास होता है जो जल्दी नहीं बीतता, स्मृति बनकर साथ-साथ चलता है और थर-थर काँपते वर्तमान में उस कवि-धीरज की तरह स्थिर बना रहता है जिसके सहारे कवि आस्तीक अपने काव्यारम्भ की देहरी पर यह पहचान लेते हैं कि मैं उसी से बना हूँ जो ढह जाता है। आस्तीक की कविता हमें फिर याद दिला रही है कि- जीत नहीं हार बचा लेती है अस्तित्व के छोर पर। यह प्रश्नाकुल कविता है जो हमसे फिर पूछ रही है कि- इस दुनिया के राज़ कौन जानता है और यह दुनिया है किसकी? यह कविता इस प्रश्न से फिर सामना कर रही है कि हमें क्यों इच्छाएँ इतनी अधिक मिलीं और कौशल इतना कम। इस नई कवि-व्यथा में डूबा साधते हुए संसार का सामना इस तरह होता है कि जैसे-बारिश के आँसू सूख चुके हैं, वे धरती को गीला नहीं करते। जैसे-गुस्सा, अहंकार और हठ ताल पर चन्द्रमा की प्रतिमा की तरह जगमगा रहे हैं। जैसे-यत्न, हिम्मत और सादगी की हवा आसमान में खो गई है-कवि आस्तीक अपनी कविता के समय के आईने में नए बाजार से घिरते जाते संसार का चेहरा दिखाते हुए हमसे कह रहे हैं कि जैसे-दूसरों की कल्पना के बागीचे में उनकी इच्छाओं की दूब उखाड़कर अपनी इच्छाओं के पेड़ लगाए जा रहे हों। कवि आस्तीक दूसरों से कुछ कहना चाहते हैं पर इस समझ के साथ कि ये दूसरे कौन हैं। यह नया कवि हमें एक बार फिर सचेत कर रहा है कि $खुद की पैरवी करते हुए हम थक गए हैं और सब अकेले घूम रहे हैं भाषा की भीड़ में, अर्थ भाग गए हैं, शब्द ही हैं जो नए बन सकते हैं। आस्तीक की कविता में बिना पाए खोने का दुख बार-बार करवट लेता है

Book information

ISBN: 9788126730162
Publisher: Repro India Limited
Imprint: Rajkamal Prakashan
Pub date:
Language: Hindi
Number of pages: 150
Weight: 390g
Height: 229mm
Width: 152mm
Spine width: 13mm